अमीर कैसे बनें

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Jawaharlal Nehru Jayanti 2022: ‘नेहरू नहीं सुभाष चंद्र बोस थे अखंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री’, क्या है रक्षा मंत्री के बयान की सच्चाई?
Jawaharlal Nehru Birth Anniversary 2022: भारत की पहली निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री मौलाना बरकतउल्ला थे।
जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस (फोटो क्रेडिट- इंडियन एक्सप्रेस)
पिछले दिनों केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाष चंद्र बोस को अविभाजित भारत का पहला प्रधानमंत्री बताया। सिंह ने कहा, ‘बोस ने उस समय ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र ‘आजाद हिंद सरकार’ का गठन किया था।’
रक्षा मंत्री के बायन के बाद अन्य भाजपा नेताओं ने भी इस तरह कि बातें कहीं। सांसद राजवर्धन सिंह राठौर ने ट्विटर पर लिखा, ”अविभाजित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे, रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह जी की यह बात पूर्णत: प्रामाणिक है। असल में नेहरू को पहला प्रधानमंत्री बताना इतिहास में घोटाला करने जैसा है और कांग्रेस शासन में ऐसे घोटाले खूब हुए हैं।”
अब सवाल उठता है कि क्या सच में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं हैं? आखिर केद्रीय मंत्रियों के इतने बड़े बयान की सच्चाई क्या है?
गलत है राजनाथ सिंह का बयान
केंद्रीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का बयान सही नहीं है क्योंकि भारत-पाकिस्तान के बंटावारे का औपचारिक ऐलान 3 जून, 1947 को हुआ था। और नेहरू अमीर कैसे बनें भारत की अंतरिम सरकार में 6 जुलाई 1946 को ही प्रधानमंत्री बन गए थे। दरअसल भारत तो 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था। लेकिन ब्रिटेन ने भारतीयों के हाथ में सत्ता एक साल पहले सौंप दी थी। जिसके तहत भारत में अंतरिम सरकार बनी थी। तय हुआ कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा। 6 जुलाई 1946 को नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने अमीर कैसे बनें लिए गए और अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री बने। इसके बाद भारत में पहला आम चुनाव हुआ नेहरू स्वतंत्र भारत के पहले अमीर कैसे बनें निर्वाचित प्रधानमंत्री भी बनें।
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सुभाष चंद्र बोस कब बने प्रधानमंत्री?
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने बयान में ‘आजाद हिंद सरकार’ का जिक्र किया है। बोस इसी सरकार के पहले प्रधानमंत्री थे। अब यहां ये समझ लेना जरूरी है कि ‘आजाद हिंद सरकार’ क्या है। दरअसल साल 1940 में अंग्रेजों ने बोस को उनके घर में ही नजरबंद किया था। लेकिन 1941 की शुरुआत में वह अंग्रेजों की आंख में धूल झोंककर भागने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने देश के बाहर से आजादी की लड़ाई लड़ी।
21 अक्टूबर, 1943 को उन्होंने सिंगापुर में निर्वासित सरकार के गठन की घोषणा की थी। उसे उन्होंने आजाद हिंद सरकार नाम दिया, खुद को सरकार का हेड ऑफ स्टेट यानी प्रधानमंत्री और युद्ध मंत्री घोषित किया। इस सरकार की अपनी फौज (आजाद हिंद फौज), करेंसी, कोर्ट, सिविल कोड, और राष्ट्रगान भी था। सुभाष चंद्र बोस की सरकार को 9 देशों जापान, जर्मनी, इटली, क्रोएशिया, बर्मा, थाईलैंड, फिलीपीन्स, मांचुको (मंचूरिया) और रिपब्लिक ऑफ चाइना ने मान्यता दी थी। इस तरह की सरकारों को ‘Government In Exile’ कहा जाता है। आसान भाषा में ऐसी सरकारों को देश से बाहर बनाई गई सरकार कह सकते हैं।
सुभाष चंद्र बोस पहले नहीं
सुभाष चंद्र बोस निर्वासित सरकार बनाने वाले पहले व्यक्ति नहीं थे। उनसे पहले दिसंबर 1915 में महेंद्र प्रताप और मौलाना बरकतउल्ला काबूल में भारत की पहली निर्वासित सरकार बना चुके थे। उस सरकार में हाथरस के राजकुमार महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रपति और मौलाना बरकतउल्ला प्रधानमंत्री थे। उनकी सरकार को ‘हुकूमत-ए-मुख्तार-ए-हिंद’ कहा जाता था। इस तरह भारत की पहली निर्वासित के प्रधानमंत्री मौलाना बरकतउल्ला थे।
मांस खाना जलवायु के लिए कितना हानिकारक है?
जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद करने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोग मांसाहार छोड़कर शाकाहार अपना रहे हैं. हालांकि, बड़ा सवाल यह है कि क्या शाकाहारी भोजन वाकई में पृथ्वी के लिए बेहतर है?
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक, हाल के दशक में वैश्विक स्तर पर मांस की खपत में काफी ज्यादा वृद्धि हुई है. अगर 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों से तुलना करें, तो प्रति व्यक्ति मांस की वार्षिक खपत लगभग दोगुनी हो गई है. 60 के दशक में यह खपत प्रति व्यक्ति औसतन 23.1 किलो थी. वहीं, 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 43.2 किलो पर पहुंच गया.
अध्ययन से पता चलता है कि अमीर देशों में मांस की खपत अधिक है. अनुमान के मुताबिक 2022 में वैश्विक स्तर पर प्रति व्यक्ति मांस की खपत बढ़कर 69.5 किलो हो जाएगी. वहीं, विकासशील देशों में यह आंकड़ा 27.6 किलो रहेगा.
ग्रीनहाउस गैसों का बड़ा उत्सर्जक है पशुपालन उद्योगतस्वीर: Rupert Oberhäuser/dpa/picture alliance
ग्लोबल वार्मिंग को कैसे बढ़ाते हैं पशु?
एफएओ के आंकड़ों के मुताबिक, इंसानी गतिविधियों की वजह से ग्रीनहाउस गैसों का जितना उत्सर्जन होता है उसके 14.5 फीसदी हिस्से के लिए पशुपालन क्षेत्र जिम्मेदार है. इससे न सिर्फ कार्बन डाइऑक्साइड (सीओटू), बल्कि मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का भी उत्सर्जन होता है. ये दोनों गैसें भी ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में सीओटू की तरह ही भूमिका निभाती हैं. हालांकि, ये दोनों सीओटू की तरह लंबे समय तक वातावरण में मौजूद नहीं रहती हैं, लेकिन कुछ समय के लिए ये वातावरण में गर्मी को काफी ज्यादा बढ़ा देते हैं. कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में मीथेन वातावरण को 25 गुना और नाइट्रस ऑक्साइड 300 गुना गर्म कर देती है. अलग-अलग ग्रीनहाउस गैसों के असर की तुलना, कार्बन डाइऑक्साइड के असर के हिसाब से की जाती है.
पशुपालन के दौरान सबसे ज्यादा उत्सर्जन पशुओं के चारे के उत्पादन से होता है. यह कुल उत्सर्जन के 58 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेदार है. वहीं, जानवरों की पाचन प्रक्रियाओं के दौरान 31 फीसदी उत्सर्जन होता है. गाय-बैल, भेड़, बकरी और अन्य मवेशी जुगाली करने के दौरान काफी मात्रा में वातावरण में मीथेन छोड़ते हैं.
वहीं, पशुपालन के क्षेत्र में अमीर कैसे बनें प्रसंस्करण और परिवहन के दौरान सात फीसदी और खाद के भंडारण के दौरान चार फीसदी गैस का उत्सर्जन होता है. पशुपालन के दौरान लगभग 87 फीसदी मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन मवेशियों की वजह से होता है, क्योंकि उनकी संख्या काफी ज्यादा होती है.
ये आंकड़े सभी तरह के पशुओं के पालन से जुड़े हुए हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो इसमें डेयरी फार्मिंग, पनीर, जिलेटिन, और ऊन के उत्पादन के क्षेत्र भी शामिल हैं. उदाहरण के लिए, दूध, मक्खन जैसे डेयरी प्रॉडक्ट के उत्पादन के लिए गायों को पालने से काफी ज्यादा मीथेन का उत्सर्जन होता है. कुल मिलाकर वैश्विक स्तर पर 15 फीसदी अमीर कैसे बनें ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन पशुपालन से होता है. यह परिवहन क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है.
दुनिया भर में मांस की खपत
क्या मांस न खाने से ग्लोबल वार्मिंग धीमी हो जाती है?
पशुपालन के दौरान ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के आकलन से हमें पूरी तरह यह नहीं पता चलता कि मांस खाने या न खाने से जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ता है. इसलिए, पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थ और पशुओं से मिलने वाले खाद्य पदार्थ की तुलना करना ज्यादा व्यवहारिक है. नेचर फूड में प्रकाशित 2021 के एक अध्ययन में ऐसा ही किया गया है.
इस अध्ययन में पाया गया कि वैश्विक स्तर पर खाद्य उद्योग से ग्रीनहाउस गैस का जितना उत्सर्जन होता है उसमें पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थ का हिस्सा सिर्फ 29 फीसदी है. इसके विपरीत, गाय, सुअर और अन्य पशुओं के प्रजनन और पालन के साथ-साथ उनके चारे के उत्पादन से 57 फीसदी गैस का उत्सर्जन होता है.
कथित तौर पर खाद्य उद्योग में वैश्विक स्तर पर एक-चौथाई ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन सिर्फ बीफ उत्पादन से होता है. इसके बाद, धान की खेती दूसरे नंबर पर है. इस दौरान सुअर का मांस, मुर्गी पालन, भेड़, मटन और डेयरी प्रॉडक्ट से ज्यादा गैस का उत्सर्जन होता है.
इस अध्ययन में हर खाद्य पदार्थ से होने वाले कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन का विश्लेषण किया गया है. एक विस्तृत तस्वीर तब सामने आयी जब अलग-अलग खाद्य पदार्थों के हर एक किलो के उत्पादन का पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया गया. अध्ययन से पता चला कि पर्यावरण पर सबसे ज्यादा असर बीफ के उत्पादन से पड़ता है. हर एक किलो बीफ उत्पादन से 99.48 किलो कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है. जबकि, भेड़ का मांस और मटन के उत्पादन के दौरान 39.72 किलो गैस उत्सर्जन होता है.
क्या मीट खाना मुसीबतों की जड़ है?
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इसी तरह, सुअर का मांस और पॉलट्री फॉर्म में मुर्गा, मुर्गी और बत्तख जैसे जीवों के एक किलो मांस के उत्पादन में कमश: 12.31 और 9.87 किलो गैस का उत्सर्जन होता है. हालांकि, पनीर के उत्पादन के दौरान 23.88 और मछली के उत्पादन में 13.66 किलो गैस का उत्सर्जन होता है, इसका मतलब साफ है कि ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन इस बात पर निर्भर करता है कि किस मांस का उत्पादन किया जा रहा है और कितनी मात्रा में किया जा रहा है. उदाहरण के लिए, बीफ खाने की तुलना में मुर्गे का मांस खाने पर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कमी आएगी.
पशुओं से मिलने वाले खाद्य पदार्थ की तुलना में पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थ के उत्पादन में ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम होता है. उदाहरण के तौर पर, एक किलो चावल के उत्पादन में 4.45 किलो कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है. यह एक किलो पॉल्ट्री उत्पाद के उत्सर्जन से भी कम है.
इसका मतलब है कि मांस की खपत पूरी तरह बंद करने से कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में मदद मिल सकती है. मांस की खपत से हर साल वैश्विक स्तर पर औसतन 1.1 टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर ग्रीनहाउस गैस अमीर कैसे बनें का उत्सर्जन होता है. वहीं, यूरोप में मांस की खपत से औसतन 1.8 टन और उत्तरी अमेरिका में 4.1 टन गैस का उत्सर्जन होता है. आंकड़ों के लिहाज से देखें, तो उत्तरी अमेरिका में मांस की खपत से जितने गैस का उत्सर्जन होता है उतना भारत में रहने वाला एक व्यक्ति दो साल और चार महीने में करता है.
वर्ष 2050 तक कार्बन न्यूट्रल बनने के लिए, धरती पर मौजूद हर व्यक्ति को हर साल दो टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी. यह मात्रा लगभग उतना ही है जितना यूरोप में मांस खाने वालों की वजह से उत्सर्जित होती है. बीफ, भेड़ और मटन न खाने से कई अन्य फायदे भी हो सकते हैं. इनके पालन के लिए धान की खेती के मुकाबले 116 गुना ज्यादा जमीन की जरूरत होती है.
यूएनईपी के हालिया अध्ययन के मुताबिक, दुनियाभर में कृषि भूमि के कुल 78 फीसदी हिस्से पर पशुपालन हो रहा है. ऐसे में खेती योग्य भूमि और चारागाह को बढ़ाने के लिए जंगलों को नष्ट करने से पारिस्थितिक तंत्र का ह्रास होता है. साथ ही, कीटनाशकों के इस्तेमाल से जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है.
पश्चिम में मांस को टक्कर देता कटहल
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निष्कर्ष
कुल मिलाकर बात यह है कि मांस उद्योग वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के एक बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार है. यह न सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाता है बल्कि प्रत्यक्ष तौर पर पर्यावरण को भी प्रदूषित करता है. जो लोग बहुत अधिक मांस खाते हैं, वे मांस की खपत को कम करके या पूरी तरह छोड़ कर जलवायु संकट से लड़ने में मदद कर सकते हैं. यहां तक कि बीफ की जगह अन्य मांस खाकर ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है.
आप क्या कर सकते हैं?
अगर यूरोप और उत्तरी अमेरिका के लोग पशुओं से मिलने वाले खाद्य पदार्थ और मांस को छोड़कर पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करें, तो अपने वार्षिक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में औसतन एक-चौथाई की कटौती कर सकते हैं. हालांकि, जीवन से जुड़े अन्य क्षेत्र भी बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, जैसे कि परिवहन और विमानन क्षेत्र. एक साल में 10 हजार किलोमीटर ड्राइविंग करने से दो टन सीओ2 के बराबर गैस का उत्सर्जन होता है, जो कि यूरोप से न्यूयॉर्क विमान से एक बार आने-जाने के बराबर है. इसी तरह जब आप विमान से यूरोप से एशिया या दक्षिण अमेरिका जाते हैं, तो यह उत्सर्जन दोगुना हो जाता है.